एक अरसे के बाद कांग्रेस पार्टी को सियासती खेल खेलते देखा. पिछली बार तो लगा था की कांग्रेसी नेताओं में सौदा (दिमाग) नहीं है I अमूमन तो कोई भी मजहबी अतिवादी या ऐसी ओर्गानैजेसन के मेम्बरान इतने हलके धमाके नहीं करते की वो जिस साइकिल पर वो बोम्ब रखा था उन्हें भी ख़ास नुक्सान नहीं हुआ I दहशतगर्द इतना तो ख़याल रखते ही हैं की इन धमाकों से अगर इंसान कम भी मरें, तो भी किसी भी हाल में जख्मी होने वालों की संख्या ज्यादा से ज्यादा हो I
मजहबी अतिवादी या ऐसी ओर्गानैजेसन के मेम्बरान बेकार में ही ऐसा जोखिम नहीं उठाते I इसका मतलब है की ये धमाके सियासती तोहफा थे, और मीडिया मैनेजमेंट काबिले तारीफ़ था की इन धमाकों की चर्चा मीडिया में भी ज्यादा न होकर बमुश्किल दो दिनों में ही ख़त्म हो गयी I इसके पहले भी तीन ग्रिडों का फेल होना महज इत्तेफाक नहीं हो सकता, और गर हुआ भी हो तो वह ४ – ६ घंटों में दुरुस्त नहीं किया जा सकता I अबकी कांग्रेसी सरकार ने अरविन्द केजरीवाल और टीम को सियासती दावों से मात दे दी I इतने ज्यादा और इतने सनसनीखेज इवेंट्स में मीडिया इनके इन्कलाब को तरजीह नहीं दे पाई I
खैर अछ्छा है की अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, और किरण बेदी को समझ में आ गया होगा की, सियासत क्लर्क की नौकरी (जिससे उन्हों ने इस्तीफा दिया है) जितनी आसान नहीं है; वर्ना हर क्लर्क, क्लर्क बनने के बजाय मंत्री या बादशाह बनता I ये विचार मैंने किसी सियासती या मजहबी ओर्गानैजेसन के खिलाफ या सपोर्ट में नहीं, बल्कि सियासती चालों की समीक्षा के मायने से लिखे है
Always Yours — as Usual — Saurabh Singh
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